Thursday, 30 January 2014

मैं अमावस की काली रातें
तुम गिनते
११६ चाँद की रातें
मेरी बरसातों में तुम
मोहब्बत उगाते हो
मैं चुनती हूँ फिर भी ….काँटे

मासूम हो तुम
समझते नहीं संज़ीदगी की
ज़ुबां ……
कुछ लम्हों की तड़प
सुनायी नहीं देती
सिर्फ महसूस होती है
और तुम सब कुछ 
सुनना चाहते हो

कैसे सुनोगे सिलवटों की
चीख़ें, तकिये की
सिसकियाँ, यादों की रुलाई
मन की तन्हाई
नहीं सुन पाओगे ....... कभी नहीं 

तुम चाँद बनो
चाँदनी के, भिगोती रोशनी के
महकते लम्हों के, तरसते
सपनों के
मैं अमावस की काली रातें
तुम चुनो
११६ चाँद की रातें,
अपने लिए……

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