Sunday, 26 January 2014

एक ऐसे सफ़र पर हूँ मैं
जिसकी मंजिल मुझे नहीं पता....
रोज़ निकल पड़ती हूँ
अपनी उलझनों को
सवालों के बस्ते में डाल और
आँखों में बेचैनी ले कर,
नहीं जानती की ये
जाने वाली सड़के
मुझे कहाँ ले जायेंगी और
वो आने वाली सड़के
कहाँ छोड़ जायेंगी
रोज़ मीलों तक चलती रहती हूँ
थक जाती हूँ, 
पाँव कापने लगते है,
ज़िस्म ज़र् होने लगता है,
लब सूख कर झड़ने लगते है
मैं हाथों से सामने 
रास्ते टटोलती हूँ और
गिर जाती हूँ

यूँही दिन ढल जाता है
शाम बैठ जाती है 
आ कर काँधे पे मेरे
रात भर उसे लिए बैठी रहती हूँ
ज़ख्म धोती रहती हूँ
साँस लेती रहती हूँ
ये कैसा सफ़र है मेरा
जहाँ न कोई मील का पत्थर है न
छाव के लिए एक अधना पेड़
बस चलते जाना है रोज़
बिना जाने की कहाँ जाना है
कहाँ रुकना है
बस चलते जाना है…………

No comments:

Post a Comment