Wednesday 30 October 2013



                     

सुर्ख़ जैसे गुलाब होता है
वैसे ही .....मेरा प्यार है तुम्हारे लिए ....सुर्ख़ .....


जब ख्याल हर्फ़ बन
तुम्हारा नाम लेके
मेरे प्यार के धागे में बंध
माला गुथ सीने से लग
जायें .....

जब ख्वाब
तुम्हारी रंगीली बातों
में रंग कर
मेरी नींदों तक 
आयें ……

जब तुम्हारी याद में
आँखों का
पानी गिरता हुआ .....
गालों पर
चुम्बन रख जाये ....

जब हवाएं चले
मुझे छेड़ती सी
दुप्पटे को ले उड़े .....
और दुप्पटा छुड़ाने
कदम दौड़ते उसके 
पीछे तक जाये .....

जब गहरी काली रातों में
चुप चुप
चाँद को तलाशती हूँ
एक तेज़ चमकता तारा
उस पल जब नज़र
में भर जाये .....

जब महफिलों में महकते लोग
अपनी बासी बातों से
मेरा दिल सुलगा जायें ........
उस पल ……
तुम बहुत याद आये
बहुत याद आये ………

Tuesday 29 October 2013

करवट बदलती रातों में
मेरे शब्द पंछी बन
ख्यालों कि पगडंडियों पर बैठ
अरमानो के फूल चुगते है

कुछ खाते और 
बाकी अधखाया बिखरा देते है
हर अरमां यूँही
कुछ खाया खाया सा
झूठा किया हुआ.....

बिखरे हुए, अधखाये, झूठे किये
अरमां मेरे....
सड़ने लगे है अब
चीटियां लग गयी है
बास आने लगेगी ....कुछ दिनों में

इतनी दुर्गन्ध और सड़न से
अब तो ....
ये पंछी भी
अपना रास्ता बदल लेंगे
और …….
सुना हो जायेगा
मेरे ख्यालों का बागीचा ......
जब भी ख्यालों में तुम आये
अक्सर ज़ेहन में 
अनगिनत अल्फ़ाज़ों की
बारीशे होने लगी
मैंने कई बार 
उन्हे हथेलियों पर समेट
कागज़ पर उकेरने की कोशिश की
मगर ना जाने क्यूँ
वो अल्फाज़ कागज़ पर 
उतर नहीं पाते
कभी अल्फ़ाज़ों से नज़्म न हो पाये

मैंने हर्फ़ हर्फ़ समेटा
फिर भी ....
नज़्म न बन सकी
सोचती हूँ कहीं ये अल्फाज़
मेरे भीगने के लिए तो नहीं
सिर्फ मुझे भीगो कर
इनकी प्यास बुझ जाये
और कागज़ पर गिर 
इसलिय ये अपना
वजूद खो देते है
समझ सकती हूँ .....

ये ज़िन्दगी 
अब अल्फ़ाज़ों से नहीं रही
शायद ...
पर ये अल्फाज़ ही 
मेरी ज़िन्दगी बन गए है
और मैं ये ज़िन्दगी ऐसे ही जीना चाहती हूँ .....
भीगती हुई ....
तुम्हारे ख्यालों के अल्फाज़ भरी 
बारिशों में ....यूँही……

Friday 25 October 2013

बहाने कम नहीं पड़ते
ज़िन्दगी गुजारने के लिए
फिर भी यूँ लगता है ....कुछ कमी है

सवेरे से जो गूंथती हूँ
ये नहीं वो ....वो नहीं ये
का सिलसिला
बस रात तक खीच ही जाता है
एक दिन और बीत गया
तसल्ली मिली पर.....कुछ कमी है

गुमराह है तलाश मेरी
मगर इस मन को सुकूं नहीं
निकल पड़ता है
ख्यालों का बस्ता लगा कर
हर सड़क हर गली
जानता है कोई कूचा न मिलेगा
फिरता लिए बोझा
शायद इत्मीनान है पर.....कुछ कमी है

अक्सर अकेले ताकती आसमां को
कभी देर रात तक दीवारों को
गहरी लम्बी साँस ले कर
अफ़सोस निभा लेती हूँ अपनी
तन्हाईयों संग
साथ मिल जाता है दोनों को
पर ......कुछ कमी है

हाँ....
सब हो ही जाता है
वक़्त गुज़र ही जाता है
उम्र की संख्या बदलती ही रहेंगी
पर फिर भी ....कुछ है जो
उदास कर जाया करेगा
नम आँखों से ....कहना भी होगा तब
कुछ नहीं ....बस यूँही....
पर मैं जानती हूँ.....कुछ कमी है ……

मैंने तो यूँही लिखा था बस
नहीं जानती थी .....इबारत सच हो जाएगी

बनावट तो शब्दों की ही थी
नहीं जानती थी ....इनसे तबाही मच जाएगी

मेरे ख़ुलूस में जो ख्याल मुकम्मल न था
नहीं जानती थी .....वही वजह बन जाएगी

ज़र्द हुई नब्ज़ धडकनों की यूँ
नहीं जानती थी ....की जान पर बन आएगी

तकल्लुफ हुआ तुम्हें सोच शर्मिंदा हूँ
नहीं जानती थी ......सुई तलवार हो जाएगी

मेरी मोहब्बत का खुदा गवाह रहा है
नहीं जानती थी ....खुदायी भी बेवफाई बन जाएगी

मैंने तो तेरे लिए ही सोचा था
नहीं जानती थी .....सोच भी गुनाह हो जाएगी

Friday 11 October 2013


                              
तुम जो मन में हो
तो सोच की उडान का
कोई दायरा नहीं
में तुम्हे साथ लिए
ज़मी आसमा
तारे नज़ारे
खुशबु रूह
सरे जहां में
विचरण कर
वापस आ जाती हूँ
समेटूं कैसे
इन उड़ानों को
अक्सर ये सोच …..
मैंने इन्हें कैद
कर लिया ....पन्नो में
चाहती थी ये
उडान तुमसे है तो ....
तुम भी इसमें शामिल रहो
तब इन्हें अल्फाजों में उतार ..
कागज़ पर सजाया
इंतज़ार किया ...
तुम्हारे आने का
पर वक़्त नहीं था शायद .....
तुम्हारे पास
संजोती रही हर दिन ...
उड़ानों को कैद कर
अल्फाजों में
पर आज न जाने कैसे ....
इन अल्फाजों को
पर लग गए
और ये उड़ चले है
तुम से मिलने ...
पंछी बन ...
पन्नो की कैद से निकल
तुम से मिलने ....
अपनी आसमां से मिलने…

Thursday 10 October 2013

                                       
जीवन के करीब
या दूर
पता नहीं .....
असमंजस में सोच
और मैं ....
शिकायतें ....आलोचनाओ
की विराट विकराल
लहरों के बीच .....
मेरे जीवन की कश्ती
हिलोरे लेती हुई.....
इस मुश्किल
सफ़र को ....
समझोते की ड़ोर पर
चुप्पी की गाँठ को थामे
मैं.....
ज़िन्दगी के इस
अथाह सागर में
डर है ....
जिस दिन इस
चुप्पी की गाँठ
खुल गयी और
कहीं ये डोर ही
टूट गयी तो
इस गहरे सागर से
विदा लेनी पड़ेगी.....

बीती रातों के
चंद कतरन
बिखरे है
आज फलक पर
लगता है जैसे
पंछी है
दिन दोपहरी में
उड़ते छिपते
ठोर तलाशते
घरो में झाँकते
तान मिलाते
बैर नापते
रास्ता पाते
दिन निकाल देते है
शाम ढले
चले आते है
मिलने एक सार में
कतरन से
आवरण बन
ओढ़ लेते है रात ....

Sunday 6 October 2013


रतजगे
मेरी तनहाइयों के
बड़े खाली खाली
होते है
न आँसुओं
का ज़ाम होता है
न धडकनों के साज़
खामोश और बिना तान
के यादें मुजरा
किया करती है
रात भर .....
आँखों के दरवाज़ों
पर खड़े होकर
ख्वाब
तरसते रहते है
हाथ फैलाये
माँगते है एक अदना
नींद का
निर्मल सा झोंका
पर न तनहाई का
दिल भरता है
और न ही
उसकी महफ़िल
से कभी यादों की
झनझन कम होती है
सारी रात
रतजगे की ये महफिले
चलती रहती है
घर में सब सोए
रहते है शांति से
और मैं
इस रतजगे में
आँखे गड़ाएं ....
मुजरा देखती हूँ
सारी रात ....हर रात…

Thursday 3 October 2013


तुम्हारे
साथ चलने
को राज़ी थी मैं
मगर ना जाने
तुम क्यूँ
आगे बढ़ चले

मैं उसे भी
स्वीकार कर
तुम्हारे क़दमों के निशां
देख पीछे पीछे
चलती रही
किस गली, किस मोड़
से तुम ले जा रहे थे
नहीं देखा

जानती थी
तुम
सही रास्ता ही
चलोगे
विश्वास था
तुम पर
कभी बीच राह छोड़
कोई साधन
नहीं तलाश करोगे
जहाँ जहाँ तुम्हारे
कदम पड़ते गये

मैं साथ के लिए
पीछे पीछे
चलती रही
ना जाने कब
तुम्हारे क़दमों
की आहट
के साथ ही उनके
निशां भी 
हलके होते गए

मैं अब कहाँ हूँ .....
किस गली किस मोड़
किस दिशा में
नहीं जानती
हर तरफ ख़ामोशी
गहरा काला
अँधेरा है

और शायद
कभी न खत्म
होने वाली तन्हाई
कहाँ हूँ मैं ....
कैसे, कहाँ
तलाश करू तुम्हे
यहाँ न 
ज़िन्दगी है मेरी
न मेरे रास्ते

दूर तक मेरी दौडती
नज़रे है जो
हांफती हुई
वापस आ जाती है
कहाँ हूँ मैं .....
अपनों से दूर
अपनी दुनिया से दूर ...
तुम से दूर ....
कहाँ हूँ मैं .....

Tuesday 1 October 2013


बेहतर था
कुछ कमी न होती,
आँखों में
यूँ नमी न होती...
तुम न आते गर
‘’जान ‘’यूँ
अधूरी न होती...
बंद ही रहता
अँधेरा कमरा,
रौशनी की
फिर गुंजाइश न होती...
न देखते सपने
न पंखों की
उडान होती...
फूंका न होता
दिल अपना,
तुम्हारी हाथ सेकने की
जो फरमाइश न होती...
तुम्हारा ख्याल ही जो
झटक दिया होता,
मेरे प्यार की
फिर पैमाइश न होती...
प्यार न होता
ये हाल न होता,
यूँ मेरे खिलाफ़
फिर दुनिया न होती...
बेहतर होता
यूँ कमी न होती,
तुम्हारी मुझे
जुस्तजू न होती...