Friday, 11 October 2013


                              
तुम जो मन में हो
तो सोच की उडान का
कोई दायरा नहीं
में तुम्हे साथ लिए
ज़मी आसमा
तारे नज़ारे
खुशबु रूह
सरे जहां में
विचरण कर
वापस आ जाती हूँ
समेटूं कैसे
इन उड़ानों को
अक्सर ये सोच …..
मैंने इन्हें कैद
कर लिया ....पन्नो में
चाहती थी ये
उडान तुमसे है तो ....
तुम भी इसमें शामिल रहो
तब इन्हें अल्फाजों में उतार ..
कागज़ पर सजाया
इंतज़ार किया ...
तुम्हारे आने का
पर वक़्त नहीं था शायद .....
तुम्हारे पास
संजोती रही हर दिन ...
उड़ानों को कैद कर
अल्फाजों में
पर आज न जाने कैसे ....
इन अल्फाजों को
पर लग गए
और ये उड़ चले है
तुम से मिलने ...
पंछी बन ...
पन्नो की कैद से निकल
तुम से मिलने ....
अपनी आसमां से मिलने…

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया ...उड़ने दो इनको पंछियों की तरह ...तय करने दो अपने हिस्से के आसमां की हद ...

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