Thursday, 3 October 2013


तुम्हारे
साथ चलने
को राज़ी थी मैं
मगर ना जाने
तुम क्यूँ
आगे बढ़ चले

मैं उसे भी
स्वीकार कर
तुम्हारे क़दमों के निशां
देख पीछे पीछे
चलती रही
किस गली, किस मोड़
से तुम ले जा रहे थे
नहीं देखा

जानती थी
तुम
सही रास्ता ही
चलोगे
विश्वास था
तुम पर
कभी बीच राह छोड़
कोई साधन
नहीं तलाश करोगे
जहाँ जहाँ तुम्हारे
कदम पड़ते गये

मैं साथ के लिए
पीछे पीछे
चलती रही
ना जाने कब
तुम्हारे क़दमों
की आहट
के साथ ही उनके
निशां भी 
हलके होते गए

मैं अब कहाँ हूँ .....
किस गली किस मोड़
किस दिशा में
नहीं जानती
हर तरफ ख़ामोशी
गहरा काला
अँधेरा है

और शायद
कभी न खत्म
होने वाली तन्हाई
कहाँ हूँ मैं ....
कैसे, कहाँ
तलाश करू तुम्हे
यहाँ न 
ज़िन्दगी है मेरी
न मेरे रास्ते

दूर तक मेरी दौडती
नज़रे है जो
हांफती हुई
वापस आ जाती है
कहाँ हूँ मैं .....
अपनों से दूर
अपनी दुनिया से दूर ...
तुम से दूर ....
कहाँ हूँ मैं .....

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