Thursday, 10 October 2013


बीती रातों के
चंद कतरन
बिखरे है
आज फलक पर
लगता है जैसे
पंछी है
दिन दोपहरी में
उड़ते छिपते
ठोर तलाशते
घरो में झाँकते
तान मिलाते
बैर नापते
रास्ता पाते
दिन निकाल देते है
शाम ढले
चले आते है
मिलने एक सार में
कतरन से
आवरण बन
ओढ़ लेते है रात ....

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