Wednesday 30 April 2014

करीब
हो कर भी
लगता है
बहुत दूर हो तुम

चलते
हो साथ मगर
नज़र नहीं आते
जैसे अब
साया हो तुम

साथ हो पर …..कैसे ?
मैं तुम नहीं
बन सकती
तुम और मैं
हम नहीं हो सकते
ये कैसा बेतुका
साज़ हो तुम

ये जो
बातें है ज़माने क़ी
ये मुझसे नहीं है न तुम से
न जोड़ो इन्हें हमारे
दरमियाँ

बेचैन हूँ मैं
तुम्हारी होने के लिए


जाओ मेरे बन के
मेरे लिए ……..आ जाओ न ……..

Friday 25 April 2014

वक़्त के मिसरे
बिगड़ते गये और
तुम न चाहते हुए भी
उन गड़बड़ाते समीकरणों में
अपनी ताह ढूढ़ते रहे

तुम्हारी
चाह बढ़ती गयी
इतनी की मुझ में से
मुझे खत्म करने लगी

मैं डरती हूँ
खुद के ख़त्म होने से
अपने खोने से
बड़ी मुश्किल से खुद को पाया है

इसलिए
अब तुम रहोगे
या मैं
तय कर लो
तुम चले जाओ
ख़ुशी से
नहीं तो मुझे
छोड़ जाना होगा तुम्हें

अपने को पा कर
खोना नहीं है मुझे
इसकी 
क़ीमत चुकायी है मैंने

तुम
मेरे लिए नही हो
ये तुम भी जानते हो
जो लेना था मुझसे
तुम ले चुके
अब अगर
फिर मंशा रखते हो तो
मुझे माफ़ करो
बस चले जाओ

मैं खुद में
खुद संग रहना चाहती हूँ
बिना तुम्हारे

हाँ……..
सच ……बिना तुम्हारे…
बंद
होठों से
ये उँगली हटा दो
कि
तुम्हारी
चुप्पी से
कहीं ज्यादा
मुझे ये खौफनाक लगती है.....

Thursday 24 April 2014

बिना
शर्त के
मिलना है ....तो मिलो

वरना
शर्त-ए ज़िन्दगी
जीना भी
मुझे .....गवारा नहीं....

Wednesday 23 April 2014

चाहूँ तो
कई रंग-बिरंगे वहम
बाँध कर, ओढ़ कर
चल पडूँ ज़िन्दगी की राह
जीने के लिए

पर
कब तक
किसे धोखा देना,
उन्हें जो मुझे देख अंदाज़ा
लगाते है मेरे होने का…….न होने का

पर ये तो
दिखावा हुआ न?
नहीं……… 
ये मुझसे नहीं होता….

मैं
ख़ुद से कैसे बचूँ
कहाँ से, कैसे, किधर जा कर
छुप कर …..ख़ुद से …..

मैं …..
खुद को बचा सकूँ
ऐसे की मेरा
मुझसे तार्रुफ़ न हो सके
मैं मेरे सामने
मैं मेरी रूह से न टकरा पाऊँ
कहाँ जाऊँ?
खुद से कैसे भागु?

घर, गली, शहर छोड़ दूँ ?
या फिर दुनिया छोड़ दूँ ?
पर खुद से
कहाँ भागूं? ……..कहाँ?

वहम
पाल कर
कैसे जियुँगी और
कब तक?

नहीं …….
नहीं मुझ से ये
नहीं होगा

मैं
ज़मीं पर पैर रख
उसे जीना चाहती हूँ
उसकी ठंडक, उसकी तपिश
उसकी बुँदे, उसकी आग में जलना
चाहती हूँ

मैं
ज़िन्दगी
की ख़्वाहिश
बन जीना चाहती हूँ

बस …….
बस यही चाहती हूँ …..बस!!!
काश
तुम समझ पाते
मेरे मन कि पीड़ा को

हर
रिश्ते की टूटन से
टूट चुकी थी मैं
तुम मिले तो जैसे
सहारा मिला फिर जीने का
तुम संग मिल रंगीन होने का

मैं
मुरझाई थी
तुमने छुआ तो महक उठी

हाँ तुमसे
रिश्ता नहीं निभाना था मुझे
पर फिर भी
न जाने क्यूँ दिल ने
रिश्ता गढ़ लिया

कुछ
गीली मिट्टी पड़ी थी
एहसासों की
तुम मिले तो उसे भी
अपना आकार मिल गया

नहीं
समझ पायी
कब कैसे ?
तुम मुझ में बसते गये
मैंने तो
पहले ही हर दरवाज़े पर
नमुमकिन का ताला लगाया था

न जाने
कब किस हवा ने वो
कुण्डा तोड़ तुम्हें
अन्दर आने दिया
और तुम भी
मुझमें समाते चले गये

अब मैं
तुम संग
तुम जैसी हो गयी हूँ और
यूँही रहना चाहती हूँ
पर नहीं ……….

नहीं
ये मुमकिन नहीं
तुम जा रहे हो और
तुम्हें जाना ही होगा

मैं
और तुम
कभी हम नहीं हो सकते

मगर
दिल घबरा रहा है
और बस तुम्हें माँगता है
मैं भाग कर
तुमसे लिपटना चाहती हूँ

पर
कुछ बीच हमारे
जो हमें बाँट रहा है और
तुम भी
छूट रहे हो मेरे हाथों से

मुझसे
ये सब बर्दाश्त नहीं हो रहा है

काश
तुम समझ पाते
मेरे मन कि पीड़ा को……. काश!!!

Tuesday 22 April 2014

अब कोई एहसास नहीं.....

एहसास
नहीं होते अब
वो तो कब के 
दफ़न कर दिए थे 
तुम्हारे जाने के बाद
कुछ 
सुगबुगाहटें 
होती थी रातों को
कानों में
जो सोने नहीं देती थी मुझे

हाँ तुम थे
तब भी कभी नहीं सोई थी
तब तुम थे न इसलिए
और अब
जब तुम नहीं हो तो
तुम सोने नहीं देते

तुम्हारी वो
आखरी पल कि बातें
वो साफ़गोई अलगाव की
हमारे रिश्ते की
कईयों बार
दोहराती है तन्हाई

अब तो
सब कंठस्थ हो चला है
सोचती हूँ
कभी अपने
दाता की स्तुति
मुंहजबानी न हो सकी और
तुम्हारी चुभती बातें
मैं दोहराती हूँ

जैसे
कोई मधुर गीत
कभी गुनगुनाया करती थी
पल पल जिसे लबों पर रख
चखती थी
जिसके स्वरों के
तेज़ से मेरे
हिमायती भी साथ हो लेते थे

पर
अब होंठ काले पड़ गए है
शायद जल गए है
तुम्हारी बातों को 
कंठस्थ जो कर लिया है

देखो
कितना ज़ेहर है इनमें जो
मुझे धीरे-धीरे
खत्म करता जा रहा है

फिर
कैसे अब एहसास
जिन्दा रहेंगे
जब सब जलने को है तो
तुमसे मुझे जोड़ने वाले सर्वप्रथम
ये एहसास ही भस्म हो गये
अब कोई एहसास नहीं
कोई भी नहीं……..

अब तुम बिन जीना है ....

अब
तुम बिन जीना है

कितना मुश्किल है
ख़ुद को ये समझाना
यकीन
कर पाना कि
तुम अब नहीं हो ……..कहीं नहीं हो

तुम
संग आने वाली
शामों का इंतज़ार
कहीं नहीं है

तुम से
होने वाली रातों का
सफर अब नहीं है

तुम से
मिल कर आने वाला
सूरज अब
कभी नहीं आयेगा

ये शामें
यूँही बुझती जायेंगी

ये रातें
यूँही तड़पती रहेंगी

सूरज
अपना सा मुँह
ले कर चला जायेगा

अब
जो तुम नहीं हो
तो सब बदरंग है

न शामों की
रंगीनियाँ लुभायेंगी

न रातों को
चाँदनी मुस्कुराएंगी

न सूरज अपने
होने पर इतरायेगा

मुझ से मिल कर ये
सब खाली हाथ लौट जायेंगे

अपने होने का
सब शोक मनायेंगे

मैं 
तुम बिन
सुनी आँखों से
हर दिन को अलविदा करुँगी
और तारीख़ों के
मायाजाल संग
ज़िन्दगी निर्वाह करुँगी

अब
जो तुम नहीं हो
न जाने
मैं कैसे जिया करुँगी ……

Monday 21 April 2014

उस शाम
तुम्हारी आँखों में
दम तोड़ती मोहब्बत देखी

बुझते
दिन की लौ में
मेरी दम तोड़ती मोहब्बत
बहुत तेज़ नज़र आ रही थी

जैसे
अन्तिम 
साँसे लेती हो और
नब्ज़ तेज़ तेज़ चलती जाती हो

मैं उसकी
हर साँस को 
महसूस कर रही थी
उसकी तड़प, छटपटाहट, दर्द
उसकी घुटन
मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी

जैसे वो
माँग रही हो 
अपने लिए मुक्ति…
इस 
अलगाव से, खोने के डर से
ख़त्म होने के ख़ौफ़ से

मैं 
रो पड़ी और
अपने दिल को सम्भाल
तुमसे 
उस शाम विदा ली
फिर कभी न मिलने के लिए

शायद
यही मेरी मोहब्बत की
मुक्ति थी

उस शाम
मैंने ख़ुद को मार कर
अपनी मोहब्बत को जीवन दे दिया …….

Saturday 19 April 2014

तेरा इंतज़ार ही बहुत है ….

तुम
तो नहीं
पर तुम्हारा
एहसास बहुत है

तुम्हारी
आवाज़ नहीं
पर तुम्हारी गूँज बहुत है

तुम
गुज़रे बस 
ख्यालों से मेरे
दिल में लगते मेले बहुत है

तुम्हारे
ज़िक्र का फ़कीर सा
दिन मेरा
तुम बिन 
कड़वी ये शाम बहुत है 

सोचो
तुम्हारा न होना भी
तुम्हारे होने-सा है
तुम रहो कहीं भी
तुम्हारी महक उड़ती बहुत है

मैंने
अलग किया जब-जब
खुद से ख्याल तुम्हारा
तुम्हारी याद 
उस पल आयी बहुत है

मेरे
लिए मेरी रूह भी
परायी निकली
जब देखा आईना तो
तुम्हारी ही
झलक आँखों में मिलती बहुत है

तुम
मिलो न मिलो
तेरा इंतज़ार ही बहुत है ……….

बस तू न मनायेगा…..

मैं
रूठती हूँ
बार बार ये सोच कर
कि शायद तू मुझे मनायेगा

खींच कर
बाँहों में अपनी
मुझे हँसी दिलायेगा

मैं
बिगड़ती ही जाऊँगी
बनावटी गुस्सा जताऊँगी
छूटने को तेरी पकड़ से
हल्का- हल्का छटपटाउंगी

तू
बाँध कर मेरे हाथों को
अपने हाथों में
लुहावने नाम दोहराएगा

पर
कितना वक़्त हुआ
मुझे रूठे हुए और
न तू आया न तेरी पुकार कोई
ठण्डी आहों से
भर आया दिल मेरा

मैं
भूल गयी थी
जैसे अक्सर
ख्यालों में यूँही भूल जाया करती हूँ
कि प्यार तो
मैं तुम्हें करती हूँ
ऐसे ही ख्याल रोज़ बुनती हूँ
कुछ पल
सोच कर मुस्कुरा लेती हूँ
और जब
कल फिर रुठने का
ख्याल मुझे आयेगा
मेरा मन
ख्यालों में यूँही गोते खायेगा

मैं ख़ुद ही
मान जाऊँगी हमेशा की तरहा
दिल खुद-बा-खुद बहल जायेगा
अफ़सोस
बस तू न मनायेगा

बस तू न मनायेगा………..

Tuesday 15 April 2014

मोहब्बत
कि रोशनी संग
साथ चलना था हमें
प्रेम के अलाव संग साथ
जलना था हमें
न जाने कब
हम से तुम हो गए और
मैं अकेला रह गया
रौशनी बुझती रही और
अलाव भी ठण्डा हो गया

मुझे ख़बर थी
मौसम बदलेगा
मगर
बेमौसम हो जायेगा 
पता न था
बारिशें और हवाएँ
सैलाब में तब्दील हो गयी
बस अँधेरा हो गया
घोर,घना, काला अँधेरा

तुम संग
जलना था मुझे
अपने आशियाँ के
उजालों के लिए मगर
तुम वक़्त के पतंगों से
घबरा कर बुझ गए,
डर गए 
आँधियों के तेज़ बहाव से
बह गए समय के साथ

मैं ठिठुरती रही 
बचती रही
इसी उम्मीद में रही
कि फिर जलूँगी तुम संग
पर ये हो न सका
वक़्त का दीया
थमता गया

मैं 
तुम संग 
जल न सकी पर
तुम बिन 
बुझ जरूर गयी……..

प्यार खत्म हो जाता है…

लोग पूछते है
प्यार वक़्त के गुज़रते
ख़त्म क्यूँ हो जाता है

क्यूँ
वैसा नहीं रहता
जैसे वक़्त
शुरू होने से पहले था

क्यूँ
बदल जाता है, बिखर जाता है
दो प्यार करने वाले
एक वक़्त के
बाद अलग हो जाते है
उनके बीच का प्यार कहाँ
चला जाता है ……
कहाँ ??

इन 
सवालों पर
सोचा, फिकरा किया और
भूल गयी……..

नहीं 
जानती थी
एक दिन यही सवाल
वक़्त से परे 
मुझे जीना सिखायेंगे

ख़ुद
जब प्यार के झरोखों
संग बैठी, झूमी
उसकी बहती धारा में
हिलोरें लेती रही तब
लगता था 
ये सब यूँही ……..

यूँही
सदा के लिए ऐसे ही रहेगा
ये समय मुझ संग है
और इसके 
गुज़रते लम्हों को
मैं और तुम से निकल
हम……..
हम संग जियेंगे

पर
ये ख़्वाब था
जो हक़ीक़त कि
रात से निकल
सच के तेज़ उजाले संग
जल गया
सच्चाई कड़वी लगी
बहुत कड़वी …….
पर यही
मेरे ज़ख्म भरती रही
और जाना कि
प्यार
मैं और तुम से निकल जब
हम के आँगन में आता है
और समय कि धूप में
ज़िन्दगी के रास्तों पर नंगे
पाँव चलता है तब
एक कमज़ोर पक्ष
स्वतः ही
जलन और तीख़ी 
खार से घबरा कर
उलटा लौट जाता है

उस
घड़ी वो पक्ष अपने
पाँवों कि जलन और
उसके मरहम को ध्यान रख
सिर्फ अपना इलाज चाहता है

जबकि 
उसे इस बात कि 
ख़बर भी नहीं होती
की उसके साथ 
ज़िन्दगी कि धूप में
जलने वाला
कोई और भी था

ज़िन्दगी ने 
धूप और छाँव
बराबर हिस्से के साथ 
सभी को बाँटी और 
जब प्यार का घर बनाया 
तो अक्सर ये सोचा गया 
कि ''मेरे'' हिस्से कि धूप
''तुम'' रख लेना और 
छाँव ……. ''हमारी'' होगी

पर 
ऐसे कैसे?
धूप हिस्से कि तो छाँव भी
धूप बाँटी तो 
छाँव क्यूँ नहीं?

होता यही है
जब प्यार ज़िन्दगी के
गुज़रते पल गिनने लगता है
और थकने लगता है
वो भी तब
जब प्यार 
अकेला पल गिने तो 
सफ़र तन्हा हो ही जाता है

रोज़ 
हर दिन यूँ
अकेले धूप में 
नंगे पाँव चलना और
पल गिनना…….

साथ
तब छूट ही जाता है 
हम से ‘मैं और तुम’ का 
बँटवारा हो ही जाता है
और इस तरहा
प्यार का आँगन
सुना हो ही जाता है

प्यार खत्म हो ही जाता है………

Thursday 10 April 2014

ये उजली सी
रात में तेरा
उतरा सा चेहरा
लगता है
चाँदनी चुभ रही थी
तुझे या काट
रहा है चाँद का पहरा

ख़ामोश रहे तुम
देर तलक और
मैंने भी
तुमसे ग़ुफ़्तगू न की
डरती हूँ
कहीं तुम रूठ कर
चले न जाओ पर
ऐसा भी क्या मिलना तुम्हारा
न तुम बोलो …….न मैं ….

तुम
मन के बड़े गहरे
न जाने किस छोर
तुम गोते लगाते हो
कैसे ……..तुम्हारी ठोर मैं जानू?

ये दमकती
रात भी जो तुम को
बेनूर लगे तो
किस रौशनी से तुम्हें
मैं रोशन करुँ ?

प्रेम की चमक
चाँदनी में निखर जाती है
पर तुम संग ये
बदरंग क्यूँ लगने लगी है?

तुम
मोहब्बत नहीं समझे
न उसकी कशिश को
अपने मैं का
दुःख तुम पर बहुत भारी है

तुम
नहीं समझे
चाँदनी की मोहब्बत
तो क्या जानोंगे मुझे और
मेरे प्यार को

ये उजली सी रात में तेरा
उतरा सा चेहरा
बेवज़ह का मातम
इस एक
मोहब्बत के पल कि
ख़ातिर …..उतार दो इसे
उतार दो इसे………..