Wednesday, 23 April 2014

चाहूँ तो
कई रंग-बिरंगे वहम
बाँध कर, ओढ़ कर
चल पडूँ ज़िन्दगी की राह
जीने के लिए

पर
कब तक
किसे धोखा देना,
उन्हें जो मुझे देख अंदाज़ा
लगाते है मेरे होने का…….न होने का

पर ये तो
दिखावा हुआ न?
नहीं……… 
ये मुझसे नहीं होता….

मैं
ख़ुद से कैसे बचूँ
कहाँ से, कैसे, किधर जा कर
छुप कर …..ख़ुद से …..

मैं …..
खुद को बचा सकूँ
ऐसे की मेरा
मुझसे तार्रुफ़ न हो सके
मैं मेरे सामने
मैं मेरी रूह से न टकरा पाऊँ
कहाँ जाऊँ?
खुद से कैसे भागु?

घर, गली, शहर छोड़ दूँ ?
या फिर दुनिया छोड़ दूँ ?
पर खुद से
कहाँ भागूं? ……..कहाँ?

वहम
पाल कर
कैसे जियुँगी और
कब तक?

नहीं …….
नहीं मुझ से ये
नहीं होगा

मैं
ज़मीं पर पैर रख
उसे जीना चाहती हूँ
उसकी ठंडक, उसकी तपिश
उसकी बुँदे, उसकी आग में जलना
चाहती हूँ

मैं
ज़िन्दगी
की ख़्वाहिश
बन जीना चाहती हूँ

बस …….
बस यही चाहती हूँ …..बस!!!

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