Tuesday, 29 October 2013

जब भी ख्यालों में तुम आये
अक्सर ज़ेहन में 
अनगिनत अल्फ़ाज़ों की
बारीशे होने लगी
मैंने कई बार 
उन्हे हथेलियों पर समेट
कागज़ पर उकेरने की कोशिश की
मगर ना जाने क्यूँ
वो अल्फाज़ कागज़ पर 
उतर नहीं पाते
कभी अल्फ़ाज़ों से नज़्म न हो पाये

मैंने हर्फ़ हर्फ़ समेटा
फिर भी ....
नज़्म न बन सकी
सोचती हूँ कहीं ये अल्फाज़
मेरे भीगने के लिए तो नहीं
सिर्फ मुझे भीगो कर
इनकी प्यास बुझ जाये
और कागज़ पर गिर 
इसलिय ये अपना
वजूद खो देते है
समझ सकती हूँ .....

ये ज़िन्दगी 
अब अल्फ़ाज़ों से नहीं रही
शायद ...
पर ये अल्फाज़ ही 
मेरी ज़िन्दगी बन गए है
और मैं ये ज़िन्दगी ऐसे ही जीना चाहती हूँ .....
भीगती हुई ....
तुम्हारे ख्यालों के अल्फाज़ भरी 
बारिशों में ....यूँही……

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