Wednesday, 29 January 2014

कैसा वक़्त है ये
राहें खोयी सी है
जैसे सब गुथ गया और
कोई पहचान नहीं रही
उभरने के लिए …….

कौन है मेरा अपना
कोई नहीं, अनजान सायें है
दूर........ दूर तलक 
सिर्फ अंधकार और निराशा 
सब है मगर, अपना कोई नहीं
एक दूजे से जुड़े खून से
जात से, जन्मजात से मगर
अनजबी है.…… मन से, दिल से
बातें है सब, स्वार्थी है सब
दिखते अपने से, पराये है सब
घुटन होती है यहाँ
एक झरोख़ा दिखता तो है पर
दूर बहुत है …….
मेरे उसूलों के
कद कम पड़ जाते है ……..

एक परिन्दा क़ैद में है
तड़पता है , फड़फड़ाता है
नहीं पता कब तक सब्र में है

एक जान ख़तरे में है ……..

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