कब से न जाने
हर शाम कन्धों पर लिए
रातों के सफ़र पर
चलती रही हूँ मैं
अश्क़ों से डबडबायी आँखे लेकर
हाथों से दीवारें टटोला करती हूँ
अक्सर खुरच जाती है लकीरें
नसीब रिसने लगता है
सब्र का मरहम भी
आउट ऑफ़ डेट हो चला है
छीलते ज़ख्मों पर
हँसी आती है,
दर्द अब मीठा हो गया है
आदतन उकता गयी हूँ
इस सफ़र से पर
लगता है कुछ
मेरा ही इसमें छूटा हुआ है
यूँ दिखता अगर
तो आसां था ढूँढ पाना भी
न जाने किस शेय में जा मिला है
पूछा था शाम का नाम लेकर
गुज़रते लम्हों से
उस दिन से हर पल भी चुप हो गया है
मुमकिन है अब ये बात शाम ही
बताये इसलिए …..
हर रोज़
काँधे पर शाम को बिठाये
सफ़र पर निकलती हूँ मैं……….
हर शाम कन्धों पर लिए
रातों के सफ़र पर
चलती रही हूँ मैं
अश्क़ों से डबडबायी आँखे लेकर
हाथों से दीवारें टटोला करती हूँ
अक्सर खुरच जाती है लकीरें
नसीब रिसने लगता है
सब्र का मरहम भी
आउट ऑफ़ डेट हो चला है
छीलते ज़ख्मों पर
हँसी आती है,
दर्द अब मीठा हो गया है
आदतन उकता गयी हूँ
इस सफ़र से पर
लगता है कुछ
मेरा ही इसमें छूटा हुआ है
यूँ दिखता अगर
तो आसां था ढूँढ पाना भी
न जाने किस शेय में जा मिला है
पूछा था शाम का नाम लेकर
गुज़रते लम्हों से
उस दिन से हर पल भी चुप हो गया है
मुमकिन है अब ये बात शाम ही
बताये इसलिए …..
हर रोज़
काँधे पर शाम को बिठाये
सफ़र पर निकलती हूँ मैं……….
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