Monday 3 February 2014

कुछ कह दो फिर
चले जाना
इन लम्हों को
लफ़्ज़ों में बांध दो फिर
चले जाना
मैंने कब से सजाएँ है
सपन सलोने
थोड़े तुम भी इनमें
झाँझर बाँध दो फिर
चले जाना
नज़में उगाई थी
तुम्हारे आने पर मैंने
उनकी बलाएँ ले दो फिर
चले जाना
खाली जागी हूँ कई रातें
तुम बिन
एक रात अपने
सपनों की दे दो फिर
चले जाना
हारी बहुत हूँ बाज़ी
ज़िन्दगी की
दिल अपना
तुम हार दो फिर
चले जाना
मुझे कुछ पल
सुकूं के दो फिर
चले जाना
जाते जाते कुछ
कह दो फिर
चले जाना ………

2 comments:

  1. प्रेम को परिभाषित करती अति उत्तम रचना ....
    :-)

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