तुम्हारी
यादों के ज़िस्म में
तुम साथ हो यहाँ
सबसे परे बस
तुम और मैं……….
एहसास
बन समायीं हूँ मैं
जिन्हें
जिन्हें
यादों संग मैंने
पहना हुआ है और अब
इसी लिबास को
पहने रहना चाहती हूँ
मैंने तुम्हारे
मैंने तुम्हारे
एहसासों को
किताबों में बाँध लिया है
हर्फों संग …….
रोज़ सफ़े सजाया
करती हूँ
तेरे नाम से हर
तेरे नाम से हर
अल्फाज़ दमकता है
तेरी आँखों की ख़ामोशी से
अपना नाम
तुम संग जोड़ कर
नज़्म लिखती हूँ
रात भर ....
और सिमटी रहती हूँ
तुम संग सारी रैन
जैसे अब
तुम संग जोड़ कर
नज़्म लिखती हूँ
रात भर ....
और सिमटी रहती हूँ
तुम संग सारी रैन
जैसे अब
किताबों के वरको
में ही खुलती और
सिमटती हूँ मैं
सुकूं है ……..
सिमटती हूँ मैं
सुकूं है ……..
तुम साथ हो यहाँ
सबसे परे बस
तुम और मैं……….
अमृता प्रीतम जी की याद आती है आपको पढ़ कर। केवक इस रचना में नहीं, आपके खयालों में अकसर उनकी सुगन्ध है। बहुत-बहुत बधाई इस मकाम पर पहुँचने के लिए।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सर .....आपने मेरी तुलना मेरे ख़ुदा से कर दी है जिसमे मैं लायक़ नही हूँ शायद ....हाँ उनके हुनर का अंश भर भी जो मैं बन पायी तो जीवन सफल समझूँगी ....पुनः दिली आभार आपका ......
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाली अत्यंत संवेदन शील रचना ...आभार
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी .....
Deleteअब यार इस पर क्या कहू. सुबह भी इसे पढ़ा और चुप हो गया था . बस मेरे मौन को ही अपनी प्रशंशा समझ लो .
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