Thursday 6 February 2014

तुम्हारी
यादों के ज़िस्म में
एहसास 
बन समायीं हूँ मैं
जिन्हें 
यादों संग मैंने 
पहना हुआ है और अब 
इसी लिबास को 
पहने रहना चाहती हूँ
मैंने तुम्हारे 
एहसासों को 
किताबों में बाँध लिया है 
हर्फों संग …….

रोज़ सफ़े सजाया 
करती हूँ
तेरे नाम से हर 
अल्फाज़ दमकता है 
तेरी आँखों की ख़ामोशी से
अपना नाम
तुम संग जोड़ कर
नज़्म लिखती हूँ
रात भर ....
और सिमटी रहती हूँ
तुम संग सारी रैन
जैसे अब 
किताबों के वरको 
में ही खुलती और
सिमटती हूँ मैं
सुकूं है ……..

तुम साथ हो यहाँ
सबसे परे बस
तुम और मैं……….

5 comments:

  1. अमृता प्रीतम जी की याद आती है आपको पढ़ कर। केवक इस रचना में नहीं, आपके खयालों में अकसर उनकी सुगन्ध है। बहुत-बहुत बधाई इस मकाम पर पहुँचने के लिए।

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत आभार सर .....आपने मेरी तुलना मेरे ख़ुदा से कर दी है जिसमे मैं लायक़ नही हूँ शायद ....हाँ उनके हुनर का अंश भर भी जो मैं बन पायी तो जीवन सफल समझूँगी ....पुनः दिली आभार आपका ......

    ReplyDelete
  3. दिल को छू लेने वाली अत्यंत संवेदन शील रचना ...आभार

    ReplyDelete
  4. अब यार इस पर क्या कहू. सुबह भी इसे पढ़ा और चुप हो गया था . बस मेरे मौन को ही अपनी प्रशंशा समझ लो .

    ReplyDelete