Sunday 2 February 2014

मैं तुझे चाहूँ तो कैसे
मैं अधूरी कहीं, कहीं से टूटी
थोड़ी सी कम, ज़रा सी नम
हल्की उदासी की
चादर जैसी
भीगी हो रातों की
पाती वैसी
मैं तुझे चाहूँ तो कैसे

मन का आँगन
पड़ा है मैला
यादों की कितनी धुल
ज़मी है
भर भर हाथों रोज़ ढोती हूँ
फिर भी सुबह शाम
चलता अन्धड़ सा रेला
जगह कहाँ है
मेरे पाँव पड़ने को
वजह कहाँ है तेरी
बात बनने को
मैं तुझे चाहूँ तो कैसे

ना……. तुझ में 
कोई कमी नहीं है
बस तुझ संग रब ने
लिखी नहीं है
मैं कब बीत जाऊँ
तारीख़ों से
मुझे अब इसकी भी
ख़बर नहीं है
मैं तुझे चाहूँ तो कैसे

अपने मन से
बंधी हुई हूँ
डोर में दर्द से जुडी हुई हूँ
मैं बदले में
दूँगी क्या तुझको
दोनों हाथों से
रिक्त हो चुकी हूँ
मैं तुझे चाहूँ तो कैसे
मैं तुझे चाहूँ भी तो कैसे………

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