Sunday, 2 February 2014

लिख कर 
काग़ज़ पर 
मिटाई गयी इबारत हूँ
अश्क़ बन 
बहती रहूँ वो बारिश हूँ
मैं समेट नहीं पाती 
अपने अक्स की टूटन
छन से पल में 
बिखर गयी वो नेमत हूँ

ऐसा नहीं था की
गुलशन महका नहीं
बहारों का मौसम
दिल से गुज़रा नहीं पर 
एक तेज़ झोंके ने ही बाग़
उजाड़ दिया
अरमान के पँछी 
मार डाले और
सुकूं का गला घोंट दिया
कैसे भूलूँ सब
बस सदमें में हूँ 

ग़ुमराह,
अजनबी, अनदेखे
सफ़र की राह में हूँ
ख्वाबों के चुभते 
ज़ख्म लिए मरहम 
खोज़ती दर्द के मैख़ाने में हूँ
मैं ड़ाल से छूटे
चिड़ी के घरौंदें की छाव हूँ
तड़पाती रहूँगी
नसों में हर पल
दुखती वो प्यास हूँ............

3 comments:

  1. कौन पत्थर-दिल है जिसने ऐसे नाज़ुक दिल को दुखाया है । इन अरमानों के पीछे कौन है जो इन्हें पढ़ कर भी लौट नहीं आया है।

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