Monday, 3 February 2014

निकल पड़ी थी
बिन बोले
बिन बताये किसी को
रोशनी से पहले
अँधेरा हाथों में लिए
मन में शून्य था बस
दूर तक और
कोई आवाज़ नहीं
बदल नहीं पायी थी मैं
होनी का चेहरा
फिर जो होता रहा
मन अपनाता रहा
चलती रही उबड़खाबड़
रास्तों पर
कोरे काग़ज़ लिए
सोचा था ……..
वक़्त पिघल कर
माथे से कागज़ पर मेरी
क़िस्मत लिख देगा
नासमझ थी मैं
किस्मत के लेख़ कागज़ों पर
नहीं समा पाते कभी
सेहरा में खोई सी मैं
मुक्ति का द्वार ढुंढती सी
फिर वापस लौट आयी
ज़िन्दगी के रास्तों पर
शायद………

तुझसे मिलने की
लकीरें थी मेरे हाथों में बाक़ी……….

3 comments:

  1. बहुत सुंदर सार्थक सन्देश देती उत्कृष्ट रचना ....!

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  2. पहले किसी फ़कीर से जानो तो सही कि तुम्हारे किस्मत की धुंध में मेरा साया है कि नहीं ..... मेरी एक नज़्म की ये पंक्तिया ही इस कविता का कमेंट है .

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