Monday 3 February 2014

जो सोचती हूँ तुम्हें
वो कैसे लिखूँ
इस अद्भुत रिश्ते को
लफ्ज़ कैसे दूँ

महसूस
करते है जैसे
फूल प्रकाश को
उस प्राप्ति को
एक आंचमन में
मैं कैसे भरूँ

तुम्हारी उड़ान
आकाश से परे
मेरे ख्वाबों तक फैली है
कैसे एक ख्याल में
तुम्हें क़ैद करूँ

बंधा तो था
एक रिश्ता
रातों के पहरों में मैंने
जो दिन भर सोया रहता
बंद कर
इस दुनिया के दरवाज़े

धुन में
वो खोया रहता
उससे दूर न होती तो
अधूरी लगती लम्हों की
कहानी शायद

वो बीतना था तो …..
बीत ही गया
फटे पन्नों जैसा
बिखर ही गया

जो अब
तुम मिले हो
मैं कैसे इक़रार करुँ
गुज़रते पलों से
तुम्हें कैसे
आज़ाद करूँ

कोशिश ……..
हाँ ….
कोशिश करती हूँ
करुँगी ……..

तुम सागर हो ….
मैं कैसे
तुम्हारा तिरस्कार करूँ

जो सोचती हूँ तुम्हें
वो कैसे ज़ाहिर करूँ
तुम्हें लफ़्ज़ों में 
कैसे बयां करूँ
कैसे................

2 comments:

  1. प्रेम को खूबसूरती से प्रस्तुत किया है .........खूबसूरत रचना

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