Sunday, 22 December 2013

कुछ याद नहीं
शाम ढलती कब
जाने कब सवेरा दिन में बदले

पल यूँ बीतें
जैसे बह गया पानी
जाने कब तारीख़े बर्फ़ में बदले

मन का कौना
जैसे रह गया ख़ाली
जाने कब मेरे बेगाने में बदले

अज़ीब है यादे
जैसे हवा से बातें
जाने कब ये आँधियों में बदले

चाहती हूँ रुकना
जैसे घर हूँ मैं
जाने कब सपने हक़ीक़त में बदले…….

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