Saturday, 8 March 2014

बहुत शोर है यहाँ.....

बहुत शोर है यहाँ
बहुत ज्यादा
मैं कैसे वो आवाज़ सुन सकूँ
जो मेरे लिए है

कितनी ही देर कानों पर हाथ लगा
सब अनसुना करती रही
लेकिन
शोर इतना है की मेरी हथेलियों को
भेद कर मेरे कानों पर बरस पड़ता है
मष्तिष्क की हर नब्ज़ थर्राने लगी है
नसों में आक्रोश भर गया है

अज़ीब शोर है यहाँ
जलन, ईर्षा, द्वेष, अपमान का,
भेदभाव का शोर
धधकता, जलाता शोर
इस तरहा बढ़ता जाता है की
इच्छाशक्ति इस के प्रभाव से
क्षीण होती जाती है
कैसे सेहन करूँ?
किस तरहा निर्वाह करूँ?

कई बार निश्चय किया
आवाज़ उठाऊँ, परास्त कर दूँ
इन कर्कश स्वरों को
पर अपनों से युद्ध, जीतना
और शिकस्त देना आसान नहीं है

मन का एक कोना
रोता है, बिलखता है जो अक्सर
भय से, आश्चर्य से घटित हो रहे
सिलसिलेवार आघात पर चौंकता है

रोज़ सवाल उठता है
कैसे अपने ही
घातक प्रहार कर देते है मन पर,
ह्रदय पर, भावनाओं पर
जिसकी चोट सीधे आत्मा को लगती है
और जिसके ज़ख्म
गहरे बहुत गहरे होते जाते है
जो दुखते है, चुभते है और रिसते है

ये कैसा शोर और किस कारण
आपसी द्वेष, नासमझी या
आपसी प्रतियोगिता के कारण

अपनों का होना सहारा होना है या
इस प्रकार के बैर का होना
जैसे निर्थक, खोखला, बेमायने और
बेमतलब होना……..

इस शोर को ख़त्म करना है
प्रयत्न बहुत हुए अब तक पर
अब प्रण करना है
इस शोर में
अपनी आवाज़ को बुलन्द करना है

हाँ अब.........
सब को ख़ामोश करना है ………..

No comments:

Post a Comment