Tuesday, 18 March 2014

दिल
का आईना
खुर्चा, तिरछा और
चटका हुआ
जिसमें मेरा अक्स
बिखरा नज़र आता है
कई टुकड़ों में

कभी कभी जब
दर्द कि सिरहन बढ़ जाती है
तब ये बिखरे टुकड़े भी
ज़र्रा ज़र्रा हो जाते है

कोई
दवा नहीं इसकी
न कोई
इस टूटे आईने को
फिर से सवारने वाला

हाँ
हर बार एक नयी
चोट, एक खरोंच और
एक टुकड़ा और करने वाले
बहुत मिले

मुझसे भी अब
ये नहीं सँवारा जाता,
सजाया जाता
मैं उब गयीं हूँ, थक गयीं हूँ
रोज़ सीधा करना,
हर टुकड़ा तलाशना और जोड़ना
खुरचन को मिटाना

नहीं
होता अब मुझसे ये
अब नहीं होता…

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