Tuesday, 11 March 2014

पीले 
पत्तो का मौसम जा चुका है
ख़ाली दरख़्त
खाली हाथ, सुने नैन लिए
सड़कों के किनारे
इन्हें कहीं नहीं जाना
कोई इन तक नहीं आता
इसलिए बस
बहार के इंतज़ार में खड़े है

दूर तक फैले सुने, तन्हां 
रास्तों पर
सूखी सूखी हवायें बिछी हुई है 
उस पर ये
उदास सा, उतरा उतरा सा दिन
बहुत ऊबता है

सोचती हूँ
इनकी सखी बन जाऊँ
इनके बीच रह जाऊँ
पर इतनी ख़ामोशी उड़ती है यहाँ
की दम घुटने लगता है
हार कर मैं
चल पड़ती हूँ मेरी
और इनके जैसी
बेगानी, उलझी, गहरी
गुमसुम खोयी सी राहों पर

इन संग
लौट चली हूँ मैं भी अब
अपनी ज़िन्दगी……

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