Tuesday, 6 May 2014

न जाने क्यूँ
मेरे सपनो मे
अब तुम नहीं आते
न मुझे सुबह याद आते हो
और न ही दिन भर तुम
दौड़ा करते हो
घड़ी की टिक-टिक के साथ

शाम तक तो
दूसरे दिन के तमाशों का
बोझ सताने लगता है

तुम्हारी
जगह ही नहीं बचती
जो तुम्हें याद भी करुँ

रातों को
नींद नहीं आती पर
न जाने क्यूँ
क्या सोचती हूँ और
सोचती जाती हूँ

घबराने
लगती है रातें …….
बैचैन हो कर पास आ बैठती है
पर मैं चुप और
वो भी चुप
चुप-चाप से चुप बैठे रहते है
सवेरा होने तक और
जब सूरज पलकों को छुता है
रात धीमे से सरक
मुड़ जाती है

फिर
मैं भी दिन के चढ़ते ही
पहरों को चढ़ने लगती हूँ

अब
यूँही वक़्त गुज़रता है
चुप-चाप और
बिन तुम्हारे ख़्यालों के

हाँ
कुछ दिनों से
जब रात ने भी चुप्पी का
साथ छोड़ दिया
तब से मैं
आँखों आँखों में
रातों के पहर गिना करतीं हुँ

पर न जाने क्यूँ
अब मेरे सपनो मे
तुम नहीं आते हो और
न मुझे
सुबह और शामों में सताते हो......क्यूँ?

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