Friday, 23 August 2013

परेशां हूँ 
मैं तुमसे
क्यूँ चली आती हो 
बिन बुलाये
हर वक़्त ...बिना वक़्त
सर पर सवार 
साथ साथ
कितने सवाल है 
तुम्हारे .....
कहाँ से लाती हो 
सबके बीच में भी
तुम चुप नहीं होती
मुझे घेरे रखती हो
तुम पर किसी का 
जोर नहीं
क्या तुम्हारा 
कोई घर नहीं
जाओ मुझे 
मुझसा रहने दो
बेपरवाह मुझे बेहने दो
मुझे नहीं टोकना
ना मुझे रोकना
मैं अपने आप से 
मिलना चाहती हूँ
तुमसे दूर
बहुत दूर जाना चाहती हूँ
ख़ामोशी नाम है तो
खामोश रहा करो
अपने नाम का कुछ तो 
लिहाज किया करो
क्यूँ अपना साम्राज्य 
फैलाया है
मुझे कमज़ोर समझ तुम 
अपना हुकुम 
ना सुनाओ
मैं तन्हा जरुर हूँ 
पर बेचारी नहीं
तुम मुझे ना सताओ 
जाओ कोई
और दुखी मन 
तलाशों
मैं तुम से परेशा हूँ
जाओ यहाँ ना आओ

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