Thursday, 19 September 2013

गहरे मन
के अंधेरों से
मैं 
हाथ बढ़ा
कर उजाले को
टटोलने की
कोशिश करती हूँ
पर ज़ख्मो के
रिसाव से 
फिसलन
इतनी है की
मैं वापस
गहरायी में
फिसल जाती हूँ
ना जाने
कितनी बार
शायद
हर बार .....
इस उलझती
ज़िन्दगी की गुम
हुई राहों को
तलाशने के
प्रयत्न में
गहरी आह भर
फिर से उजाले
की तरफ
निगाह कर ....
मैं हाथ बढ़ाती हूँ 
उसे छूने की
कोशिश करती हूँ
कभी तो
उसका कतरा भर
रह जाये मेरी
उंगलियों के
पोरों पर
देख सकू
उसे करीब से
कभी तो शायद
मेरे हाथों में
वो भर जायेगा
आ कर ....
जिससे मन को
भीगो सकूंगी
निराशा की
आँखों को खोल
आशा के सवेरे
से मिला सकूंगी
और यही सोच
उजाले की राह
में मेरे प्रयास
जारी है ......

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