Tuesday 7 May 2013

बरसात के शहर में भी मैं प्यासी रही

दूर तक भीड़ देखी बहुत पर मैं तन्हां ही रही


सितारे भरे आसमां में सबका अरमा चमचमाता रहा

मैं उस रात भी चाँद तलाशती ही रही


मतलब निकाल लिए दुनिया ने मेरी ख़ामोशी के कई

मैं सबके तीरों के ज़ख़्म बरसो धोती ही रही


नहीं - नहीं सुनकर सबकी ख़ाक हुए सपने मेरे

मैं छाले हाथो में लिए राख छानती ही रही


ग्रहण लगा मेरे सूरज को कितने बरसो से वो सोया हुआ

मैं जलन आँखों में लिए दिल अपना रोशन करती ही रही


बांध भरोसे की डोर से एक झटके सब हवा हुआ

मैं घुटती मिटती आस में पंख फडफडाती ही रही


बेकारियां नकामाबियाँ सब मेरे हिस्से आ गयी

तमाम उल्फ़तों का सबब मेरी इबादत ही रही


सोच कर वक़्त का इरादा साये ने भी गली तलाश ली

मैं समेट कर चुप्पी के धागों में खुद को पिरोती ही रही


आवाज़ें अब जो कभी मेरा पता पूछने लगी

मैं कफ़न ओढ़ कर मरने का ढोंग करती ही रही


ढूढ लेना कभी गर मिल पाई खबर मेरी

मैं अफवाहों के बाज़ार से भी गायब होती ही रही

No comments:

Post a Comment