Wednesday, 10 April 2013

ना नफा देखा ना नुकसान देखा
जब देखा तुझे बंद आँखों से देखा

खोजती रही अँधेरे में चाबियाँ
अपनी सोच का ताला हमेशा बंद देखा

सुलझाती रही उलझती पहेलियाँ
जो साफ़ था नज़रों को भ्रम में वो भी कहाँ देखा

हलके उजालों में ही लिखती रही वादे तेरे
कब परदा ज़ेहन से हटा के देखा

होना था कभी अपना भी यकीन छलनी
ज़माना इतना कहाँ हमने था देखा

No comments:

Post a Comment