Sunday, 24 March 2013

कैसे कह दूँ के मन बुन ले खुआब फिर नए ..
बीते खुअबों की राख अभी तक ठंडी हुई नहीं है …

एक नींद की चाहत में हर रात आंखे मलती हूँ
बीती टूटी नींद की चुभन अब तक दुखती रही है

किसी के आने का इंतज़ार जो तुम पर ख़तम हुआ था
बीते वेहम की वो चोट अभी तक भरी नहीं है

कैसे सजा लूँ मैं अपनी राहों के दर -दरवाज़े 
बीते जो गया वो अब तक लौटा नहीं है 

हाँ ये दीवानापन कहलायेगा मेरा
बिता एक पल जो आँखों से छलका नहीं है

अनजानी तलाश न जाने कब पूरी होगी 
बिता जो किस्सा वो अभी शायद ख़त्म हुआ नहीं है

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