Friday 31 October 2014

आज
रोक लूँ चाँद को
तुमको आने में शायद देर लगे

कुछ और वक़्त तक ताकूँ उसको
कुछ देर तक बना लूँ तस्वीर तुम्हारी इन तारों को जोड़ कर

सुनती हूँ रोज़ हवाओं के अफ़साने
चांदनी से ....तुम आओ
दोहराने हैं कुछ किससे पुराने ....मुझे भी

कितने धीरे-धीरे
घिसट-घिसट कर पल गुजर रहे हैं
देखो.....छिलते जातें हैं पाँव इनके पर
जिद्द के पक्के ..... मुझे सताना जो है इनको

इतनी ख़ामोशी
से जो ये रात चल रही है ....सवेरा कब होगा...
शायद पता न लगे .....तुम कब आओगे फिर ?

सवेरे तक ये
चाँद नहीं रुकेगा मेरे लिए .....

आ जाओ .....
अब तो तारे भी
पीरों लिए मैंने गिनतियों में .....

आ जाओ न.....

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